Saturday 16 December 2017

दोहे

बेटे ने दहलीज़ के, बाहर रक्खे पाँव।
सूना-सूना हो गया, माँ के मन का गाँव।।


जब ख़ुदगर्ज़ी के लिये, शुरू हुए टकराव।
तबसे डगमग हो गयी, संबंधों की नाव।।


फूल खिले गुलदान में, उगी लॉन में दूब।
कम करके विस्तार को, हुई तरक्क़ी ख़ूब।


धरी रही बंदूक भी, जंग लगी तलवार।
अबके मेरे यार ने, किया प्यार से वार।।


अंधियारी इक रात में, हावी था शैतान।
देवी अबला-सी लुटी, डूब मरा इंसान।।


वृद्ध आश्रम को चले, सूने हैं दालान।
धूप, चाय, अखबार की, सूख रही है जान।।


नौका, नाविक, नीर ने, डाल दिये हथियार।
तूफां से अब दुश्मनी, झेल रही पतवार।।


क़ैदी कुछ सुधरा अगर, हुई सफ़ल तब जेल।
ताम-झाम वरना गये, समझो सारे फ़ेल।।


घर के अंदर रात भर, चली आज तकरार।
काना-फूसी कर रही, किससे यह दीवार।।


अपनों ने दुत्कार कर, लेनी चाही जान।
खिला-पिला कर चल दिया, इक पागल अंजान।।


@ के. पी. अनमोल

Tuesday 12 December 2017

ग़ज़ल-

मफ़ऊल फ़ाइलात मफ़ाईल फ़ाइलुन
221    2121    1221   212

जैसे ही फूल शाख़ से गिरकर बिखर गया
सारा चमन उदासियों में डूब मर गया

मुझको तो रौशनी की ज़रा भी तलब नहीं
दहलीज़ पर चिराग़ मेरी कौन धर गया

उलझा है तेरे प्यार के धागों में जबसे दिल
तबसे मेरी हयात का पैकर सँवर गया

अपशब्द चीखते हैं मोहल्ले में हर तरफ़
जाने ये किसकी आँख का पानी उतर गया

"घर की हरेक बात हवाओं को सौंप दो"
उफ़! कौन आके कान दीवारों के भर गया

ख़ुद को ही देख आईने में सोचता हूँ मैं
मासूम-सा जो शख़्स था इसमें किधर गया

मैसेज उसका आ ही गया आख़िरश मुझे
अनमोल! कॉल आया नहीं, दिन गुज़र गया

@ के. पी. अनमोल

Thursday 12 October 2017

ग़ज़ल-

ज़रा-सी देर के लिए मैं ख़ुद में क्या उतर गया
सभी लगे हैं चीखने, "किधर गया, किधर गया"

जो एक ख़्वाब आँखों में था जाने कब बिखर गया
बिखर के मेरी रूह को उदासियों से भर गया

ये सोच कर तसल्ली दे न पाया ख़ुद को मैं कभी
था ख़्वाब ही तो, क्या हुआ, जो मर गया तो मर गया

न पैरवी तुम अब करो किसी की मेरे सामने
जो एक बार आँख से उतर गया, उतर गया

जहान भर के वास्ते तो आफ़ताब था मगर
न जाने मुझमें क्यों वो ग़म की काली रात भर गया

ये रास्ता हमारी मंज़िलों को जाता ही नहीं
तो क्या शुरू से अब तलक का सारा ही सफ़र गया!

उस इक ख़याल को ग़ज़ल की जान कह रहा हूँ मैं
जो आके ज़िन्दगी की मुश्किलों पे बात कर गया

- के. पी. अनमोल

Tuesday 22 August 2017

ग़ज़ल-

ख़ुद को आईने में रह रह कर सँवारा ख़ूब था
यार मेरे तुमने जब मुझको पुकारा ख़ूब था

बस नहीं चल पाया बस दिल पर मेरे दिल का कोई
दिल तुझे देने तलक यूँ तो विचारा ख़ूब था

अब नहीं सुनता कोई भी बात मेरी दिल मेरा
पर तेरा होने से पहले ये भी प्यारा ख़ूब था

तुम मेरी गोदी में लेटी थीं सितारे गिन रहीं
रात के तीजे पहर का वो नज़ारा ख़ूब था

सुब्ह बातें, शाम बातें, बातें सारी दोपहर
डूबकर बातों में तेरी दिन गुज़ारा ख़ूब था

जिस घड़ी था सारी दुनिया ने किनारा कर लिया
प्यार का उस दम तेरे मुझको सहारा ख़ूब था

- के. पी. अनमोल

Monday 21 August 2017

ग़ज़ल-

कुछ परिन्दे अम्न के बैठे शजर पर देखकर
आँखें भर आयीं सुकूं का एक मंज़र देखकर

किस तरह बतलाऊँ मेरे दिल को क्या हासिल हुआ
ख़्वाब में अपने वतन के हाल बेहतर देखकर

सादगी, संजीदगी, दरियादिली, मेहनतकशी
ख़ुश हूँ उसकी शख़्सियत में ऐसे ज़ेवर देखकर

मिन्नतें करता है उसकी, नाज़ उठाता है सभी
है नदी अचरज में ऐसा इक समन्दर देखकर

कर न पाया यह हुनर पैदा में ख़ुद में आज तक
लोग कैसे हैं बदलते रंग अवसर देखकर

शक़्ल, लहजा, मुस्कुराहट और अदाएँ सब तेरी
चौंक उठता हूँ मैं आईने को अक्सर देखकर

दर्ज है अनमोल का भी नाम, बतलाना ज़रा
इश्क़ के स्कूल का तुम यह रजिस्टर देखकर

- के. पी. अनमोल

Friday 28 April 2017

ग़ज़ल- आईना हैरान रहा

कितने दिनों तक आईना हैरान रहा
अब तक कैसे छिपकर यह इंसान रहा

जब तक कुछ अच्छा करने की नीयत थी
दिल पर मेरे हावी इक शैतान रहा

फ़ाक़ा करते देख धरा के बेटे को
भीतर-भीतर घुटता इक खलिहान रहा

जब भी तोड़ा, कुछ-कुछ रक्खा साबुत भी
मेरे रब का मुझ पर यह एहसान रहा

शंकर पर जब दु:ख का परबत टूटा तो
साया बनकर साथ खड़ा रहमान रहा

सबने मिलकर सींचा है इस धरती को
ऐसे ही तो ज़िन्दा हिंदुस्तान रहा

तुझमें शामिल होकर पहुँचा हूँ ख़ुद तक
रस्ता यह अनमोल कहाँ आसान रहा

- के. पी. अनमोल