Wednesday 28 September 2016

ग़ज़ल

समंदर में समाने जा रही है
नदी ख़ुद को मिटाने जा रही है

बिलखते छोड़कर दोनों किनारे
किसे अपना बनाने जा रही है

बगल में डालकर थैला ये बच्ची
नहीं पढ़ने, कमाने जा रही है

लहू में तर-ब-तर फिर एक सरहद
जहाँ से गिड़गिड़ाने जा रही है

तुम्हारी याद दिल को हैक करके
मुझे फिर से सताने जा रही है

मेरी उम्मीद बंजर हौसलों पर
नये सपने उगाने जा रही है

परेशां आदमी से ज़ात मेरी
ख़ुदा को कुछ सुनाने जा रही है

यहाँ अनमोल इतना शोर सुनकर
ख़मोशी बड़बड़ाने जा रही है

- के. पी. अनमोल

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