Wednesday 25 May 2016

ग़ज़ल

माँ की बातें गाँठ बाँध कर लौटा है
कुछ सौगातें गाँठ बाँध कर लौटा है

धूप न सर तक आयेगी अब शह्रों की
चाँदनी रातें गाँठ बाँध कर लौटा है

अबके जीत यक़ीनन समझो है उसकी
पिछली मातें गाँठ बाँध कर लौटा है

मुमकिन है के अब धरती की प्यास बुझे
वो बरसातें गाँठ बाँध कर लौटा है

संगत में अपनों की कुछ पल क्या बैठा
कितनी घातें गाँठ बाँध कर लौटा है

अभी अभी माज़ी से यादों की अनमोल
कुछ बारातें गाँठ बाँध कर लौटा है

- के.पी. अनमोल

Saturday 21 May 2016

ग़ज़ल

एक क़िस्सा क्या अधूरा रह गया
ज़ीस्त का नक्शा अधूरा रह गया

वक़्त ने हर बार समझाया मगर
ज़ात का झगड़ा अधूरा रह गया

फिर सहन ये एक हो पाया नहीं
माई का सपना अधूरा रह गया

पीठ से ख़ंजर ने कर ली दोस्ती
और फिर बदला अधूरा रह गया

ज़ख्म जो था भर चुका कब का मगर
ये किरच-सा क्या अधूरा रह गया

तुम मिरे होकर रहे अनमोल और
भीड़ का गुस्सा अधूरा रह गया


- के. पी. अनमोल

Sunday 8 May 2016

ग़ज़ल- ज़रा सोचिये

ज़रा सोचिये क्या से क्या हो गई
महब्बत तुम्हारी नशा हो गई

मेरा जिस्म परवाज़ करता रहा
हवा रूह लेकर हवा हो गई

पता तेरे दर का पता जब चला
तलब ख़ुल्द की लापता हो गई

मेरे पैर के आबले देखकर
रुकावट भी खुद रास्ता हो गई

अचानक हर इक काम बनने लगा
मेरे हक़ में किसकी दुआ हो गई

किसी रोज़ अनमोल कह दे ये तू
तेरा दिल चुरा कर ख़ता हो गई

- के. पी. अनमोल
ख़ुल्द= जन्नत, आबले= छाले