Friday 1 December 2023

ख़्वाबों की सीपियों में अनमोल सम्भावनाओं के मोती


अँधेरी रात में उजला नकाब पहने हुए
ये कौन आता है शाइर का ख्वाब पहने हुए

ये मतला पढ़ता हूँ के० पी० अनमोल की अद्यतन ग़ज़ल में और एक अस्पष्ट-सी पूर्वानुभव-भ्रांति (deja vu) की तरह-का कुछ कौंधता है मन में। मानो इस मतले को पहले भी पढ़ चुका हूँ कहीं! लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है? आज ही तो रची हैं ये पंक्तियाँ शाइर ने, पहली बार आज ही तो लाई गयी हैं पाठकों के हुजूर में ये! फिर वो 'डेजा-व्यू' वाली मन:स्थिति क्यूँ? सोचता हूँ! पाँचवीं बार...  छठवीं बार... सातवीं बार पढ़ता हूँ ये मतला! और फिर मानो अचानक अपने-आपसे ही धुंध छंट जाती है। स्पष्ट हो जाता है कि पाठक का 'डेजा-व्यू' खामख्वाह नहीं था क्योंकि ये मतला नहीं, वरन मतले का 'मोटिफ' था, जो ये आभासी-विभ्रम पैदा कर रहा था मेरे द्वारा इन पंक्तियों के कहीं पहले भी पढ़ चुके होने का!

और वो 'मोटिफ' है- ख़्वाब! जी हाँ, अनमोल जी- 'ख़्वाब' ही तो आपकी गजलों का सबसे ज़्यादा पुनरावृत्त मोटिफ है! और क्यों न हो, शाइर का सबसे बड़ा मोटिवेशन ख़्वाबों से न आए तो और कहाँ से आए? कितनी उदास, बे-रंग और एकरस होगी वो शाइरी, यदि उसमें हो सिर्फ यथार्थ की फ़िक्र, और वो शाइरी जो हो बस कंक्रीट सच्चाईयों के सम्प्रेषण का माध्यम? बल्कि उसे ऐसा बनाने- उसके कलेवर को ऐसे सीमित करने- की तो कोशिश भी शाइरी के अंत की शुरुआत के सबब के अलावा और कुछ न होगी!

बहरहाल! ये रहे आपकी गजलगोई में ख़्वाब को शब्दों में ढालकर शेरों में पिरोने की चंद कोशिशों के नतीजे-


1.

ख़्वाब में देखा है जबसे लहलहाते खेत को
आ रही है मेरे भी भीतर से पानी की महक

2.

रात भर दो ख़्वाब जागे एक होकर
जूगनुओं ने पहरेदारी रात भर की

3.

नींद के शह्र से रात हम
ख़्वाब फिर कुछ चुरा ले गए!

4.

नींद से ये हुनर लिया जाए
ख़्वाब आँखों में भर लिया जाए

5.

अपनी ताबीर तक पहुँचने को
ख़्वाब आँखों में चलने लगते हैं

6.

तुम्हीं ने तो दिया जज़्बा है चलने का हमें वरना
ये ख़्वाबों के हैं जितने सिलसिले बिल्कुल नहीं होते

और फिर ये अद्यतन मतला-

7.

अँधेरी रात में उजला नकाब पहने हुए
ये कौन आता है शाइर का ख्वाब पहने हुए

ज़रा देखिए तो, कैसे मैच्योर हो रही है धीरे-धीरे आपके ख़्वाबों की सिफ़त? स्पष्ट दिख रहा है: देखिए कि आज से पहले के सारे शेरों में आपके ख़्वाब इस लहजे में व्यक्त हुए हैं मानों उन्हें देख, समझ, पकड़ पाना- और फिर उसकी ताबीर कर पाने में समर्थ हो पाना भी आपका एक बहुत बड़ा ख़्वाब ही रहा किया है! कभी आप चुरा लाते हैं उन्हें कहीं से, कभी उन जगहों का पता देते हैं जहाँ से चुराए जा सकते हैं वो! उपरोक्त दूसरे नम्बर का शेर देखें कि आपने जुगनूओं को पहरेदारी पे लगा रखा है, क्योंकि आप निश्चिंत नहीं अभी कि अकेले सम्भाल पाएँगे उनकी सुरक्षा का ज़िम्मा! छठे नम्बर के शेर में आप शुक्रिया अता कर रहे उनका- उन लोगों का, उन स्थितियों का- जिन्होंने आपकी समझ से आपको बख्शे हैं आपके ख़्वाब।

लेकिन आज आप एकदम से एकाकार हैं अपने ख़्वाबों से, जान चुके हैं उनकी नियत भी और उनके निहितार्थ भी। गो कि आप जान चुके हैं कि ग़ज़लनिगारी ही है असल में आपके अंतस में पलता ख़्वाब! वो आप ख़ुद ही तो हैं अनमोल जी, जिसे अन्यपुरूष की भूमिका में रखकर पूछ रहे हैं आप कि 'ये कौन आता है शाइर का ख़्वाब पहने हुए?'

बड़े विश्वास के साथ एक नई ज़मीन पर रखे हैं पाँव आपने- इस छायावादी-रहस्यानुभूति की ज़मीन पर..!! लेकिन हाँ, ये एक अवश्यंभावी ख़्वाबगाह भी है ख़्वाब पहने और ख़्वाब जीते लोगों की, आपके भीतर बैठे शाइर की! लेकिन सनद रहे कि ये ज़मीन यानी इस रोमांटिक मिस्टीसिज़्म का भाव-जगत जितना ज़्यादा आकर्षक, विविधतापूर्ण और सम्भावनाओं से भरा-पूरा है, कल्पना को उड़ान के लिए जितना बड़ा आकाश मुहैय्या कराने की क्षमता से युक्त है, उतना ही ज़्यादा फ़िसलन भरा भी है। यहाँ ज़रा-सा नियंत्रण खोया अपने भावों की अठखेलियों पर, ज़रा-सा अनुशासन में न रखा अपने माध्यम के शिल्प को और ज़रा-सा ढीला किया अपना दवाब अपनी सम्प्रेषणियता के औजारों पर तो ऐसी हवाई अभिव्यक्तियों, ऐसी अनर्थकारी व्यंजनाओं और ऐसी हास्यास्पद अतिशयोक्तिओं का जन्म होता है कि कल्पना ही शर्मा जाए। बहुतेरे उदाहरण दें तो ज़रूर कह सकता हूँ यहाँ पर अपने इस अभिकथन की पुष्टि के लिए प्रमाण के तौर पर लेकिन अफ़सोस हिंदी में एक भी स्मृति में नहीं​ इस वक़्त! सो बस इतना भर इंगित करके काम निकालना चाहूँगा यहाँ पर कि अंग्रेजी-कविता में John Donne के नेतृत्व में चले मेटाफिज़िकल पोएट्री के स्कूल ने ऐसी ढेरों कविताएँ दी हैं, जिसमें आपको स्पष्ट दिखेंगे कल्पना की लगाम को बिल्कुल ही हाथों से छोड़ देने के कुपरिणाम यानी एक घनघोर रूप से कृत्रिम और हास्यास्पद रूप से हवाई प्रकार के काव्य का सृजन! प्रशंसा की बात है आप इस ग़ज़ल में बड़ी आसानी से निबाह ले गये हैं इस धोखेबाज़ ज़मीन पर सधे-हुए क़दमों से चलने का तौर...वाकई!

बस...फ़िलहाल के लिए तो बस यही है शब्दों में रूपांतरित उन भावों की अंतर्वस्तु, जो आपकी इस नई ग़ज़ल के बरअक्स कुलबुलाते रहे हैं मेरे मन में।

______________

© राकेश कुमार, 08 जुलाई 2017

Tuesday 12 September 2023

के० पी० अनमोल









जन्मतिथि
- 19 सितम्बर, 1989
जन्मस्थान- साँचोर (राजस्थान)
शिक्षा- एम० ए० एवं यू०जी०सी० नेट (हिन्दी),  डिप्लोमा इन वेब डिजाइनिंग
लेखन विधाएँ- ग़ज़ल, गीत, दोहा, कविता, समीक्षा एवं आलेख।
प्रकाशन- चार ग़ज़ल संग्रह 'इक उम्र मुकम्मल' (2013), 'कुछ निशान काग़ज़ पर' (2019), 'जी भर बतियाने
                      के बाद' (2022) एवं 'जैसे बहुत क़रीब' (2023) प्रकाशित।
     ज्ञानप्रकाश विवेक (हिन्दी ग़ज़ल की नई चेतना), अनिरुद्ध सिन्हा (हिन्दी ग़ज़ल के युवा चेहरे), हरेराम समीप (हिन्दी ग़ज़लकार: एक अध्ययन (भाग-3), हिन्दी ग़ज़ल की पहचान एवं हिन्दी ग़ज़ल की परम्परा), डॉ० भावना (कसौटियों पर कृतियाँ), डॉ० नितिन सेठी एवं राकेश कुमार आदि द्वारा ग़ज़ल-लेखन पर आलोचनात्मक लेख। अनेक शोध आलेखों में शेर उद्धृत।
    ग़ज़ल पंच शतक, ग़ज़ल त्रयोदश, यह समय कुछ खल रहा है, इक्कीसवीं सदी की ग़ज़लें, 21वीं सदी के 21वें साल की बेह्तरीन ग़ज़लें, हिन्दी ग़ज़ल के इम्कान, 2020 की प्रतिनिधि ग़ज़लें, ग़ज़ल के फ़लक पर, नूर-ए-ग़ज़ल, दोहे के सौ रंग, ओ पिता, प्रेम तुम रहना, पश्चिमी राजस्थान की काव्यधारा आदि महत्वपूर्ण सम्वेत संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित।
    चाँद अब हरा हो गया है (प्रेम कविता संग्रह) तथा इक उम्र मुकम्मल (ग़ज़ल संग्रह) एंड्राइड एप के रूप में गूगल प्ले स्टोर पर उपलब्ध।
संपादन-
1. ‘हस्ताक्षर’ वेब पत्रिका के मार्च 2015 से फरवरी 2021 तक 68 अंकों का संपादन।
2. 'साहित्य रागिनी' वेब पत्रिका के 17 अंकों का संपादन।
3. त्रैमासिक पत्रिका ‘शब्द-सरिता’ (अलीगढ, उ.प्र.) के 3 अंकों का संपादन।
4. 'शैलसूत्र' त्रैमासिक पत्रिका के ग़ज़ल विशेषांक का संपादन।
5. ‘101 महिला ग़ज़लकार’, ‘समकालीन ग़ज़लकारों की बेह्तरीन ग़ज़लें’, 'ज़हीर क़ुरैशी की उर्दू ग़ज़लें', 'मीठी-
        सी तल्ख़ियाँ' (भाग-2 व 3), 'ख़्वाबों के रंग’ आदि पुस्तकों का संपादन।
6. 'समकालीन हिंदुस्तानी ग़ज़ल' एवं 'दोहों का दीवान' एंड्राइड एप का संपादन।
प्रसारण- दूरदर्शन राजस्थान तथा आकाशवाणी जोधपुर एवं बाड़मेर पर ग़ज़लों का प्रसारण।
स्थायी निवास- साँचोर (राजस्थान)
वर्तमान निवास- रुड़की, (उत्तराखण्ड)
ई-मेल: kpanmol.rke15@gmail.com
मोबाइल- 8006623499

Wednesday 12 April 2023

नए समय का संज्ञान- ज्ञानप्रकाश विवेक

 के० पी० अनमोल नए समय के यथार्थ में ज़रूरी हस्तक्षेप पैदा करते हैं। यथार्थ की आँखों में आँखें गड़ाकर देखना और उसे ग़ज़ल के ज़रिए व्यक्त करना- जिस तज़ुर्बे और हौसले की माँग करता है, वो उनके पास है। उनके पास आधुनिक बोध है, जिससे वो अनुभूत किये गये समय के विसंगत को नए लबो-लहजे में व्यक्त करते हैं।

वो कहते हैं- 'हैरान हूँ मैं आज का अखबार देखकर' तो इसी एक मिसरे में पूरे परिदृश्य को रेशा-रेशा कर देते हैं। यह मिसरा जितनी सामाजिक अभिव्यक्ति है उतनी राजनीतिक और आर्थिक। किसी भी दिन का अख़बार समाज और सियासत की विडम्बनाओं की चीखती हुई तहरीर होता है। एक अन्य ग़ज़ल का एक मिसरा है- 'मुफ़लिसों की बस्तियों की ही तरह बदनाम हूँ' यह मिसरा अपने आप में सम्पूर्ण कविता है। इस मिसरे में एक प्रश्न भी है कि आख़िर मुफ़लिसों की बस्तियाँ ही बदनाम क्यों होती हैं? यही विडम्बना है। समाज का दृष्टिबोध कितना ऐबी है कि उसे प्रपंच रचने वाली संपन्न कॉलोनियाँ पाक-साफ़ नज़र आती हैं और मुफ़लिस की बस्तियाँ बदनाम!
कवि ख़ुद को उसी बदनाम बस्ती जैसा बताते हुए जुर्रत का काम लेता है। शेर का दूसरा मिसरा बेशक साधारण है लेकिन इस ग़ज़ल के मक्ते में वो अपने होने का एहसास कराते हैं- 'मैं फ़क़त अनमोल लफ़्ज़ों की नहीं कारीगरी!'

ज़ाहिर है के० पी० अनमोल एक बेचैन युवा ग़ज़लकार हैं, जो ग़ज़ल की दुनिया में सिर्फ मीनाकारी के लिए प्रविष्ठ नहीं हुए बल्कि नई वैचारिक तबो-ताब लेकर आये हैं। वो कहते भी हैं- 'बगल में डालकर थैला ये बच्ची, नहीं पढ़ने कमाने जा रही है।'
फूल, तितली, बच्चे, पार्क, समंदर, कश्ती, खिलौने, सपने के विपरीत के० पी० अनमोल ने एक बच्ची और उसके मुश्किल दिन को शेर में व्यक्त किया है। ग़ज़लकार ने जब बच्ची को पहली बार सरसरी तौर से देखा तो उसे लगा कि वह स्कूल जा रही है लेकिन बाद में (ग़ौर से देखने पर) वो इस यथार्थ से टकराया कि नहीं, पढ़ने....कमाने जा रही है। यह शेर बेहद सादगी से व्यक्त किया गया है और सादगी इस शेर की आत्मीयता है।

के० पी० अनमोल नए समय के यथार्थ को प्रखर दृष्टि से देखते-परखते हैं। शेर कहते हुए वो एक वातावरण रचते हैं। यह ग़ज़ल का वातावरण सरगर्मी से भरपूर, जीवन्त और चेतना सम्पन्न होता है। उसके अशआर में नए मध्यम वर्गीय समाज (जो बेहद स्वार्थी और आत्मकेन्द्रित हो चुका है) के बनते-बिगड़ते मूल्यों का बोध तो होता ही है, वो तनाव भी होता है, जो इस बदहवास समाज ने अपने लिए अपनी जीवनशैली की वजह से ख़ुद पैदा किया है। अनमोल का एक शेर इसी सिलसिले में-
कहाँ तुम दौड़े भागे जा रहे हो
समय तो ख़ुद कहीं अटका पड़ा है

शेर में तंज नहीं, फिक्राकशी भी नहीं। बस एक दोस्ताना सलाह है- बदहवास भागते समय को पकड़ने की कोशिश में मसरूफ़ लोगों के लिए और यह एहसास कराते हुए- समय तो ख़ुद कहीं अटका पड़ा है।

इधर नए युवा ग़ज़लकारों ने इश्क़ जैसे शाश्वत विषय को हिंदी ग़ज़ल में कथ्य के रूप में प्रविष्ठ किया है। किसी भी विषय पर लिखा जा सकता है। विधाओं में ना सरहदें होती हैं ना चार-दिवारियाँ लेकिन समाज की विडम्बनाओं को दरकिनार करते हुए मैं और तू के बीच की कशमकश को ही ग़ज़ल का केन्द्र बना लेना ग़ज़ल के विशाल परिसर को सीमित करने जैसा है लेकिन अनमोल सचेत और अनुभव सम्पन्न युवा ग़ज़लकार हैं।

प्रेम जैसा विषय उनके यहाँ भी है लेकिन वो भी आख्यान से होकर मिथकीय रूप में व्यक्त होता है। मिथक को नए सामाजिक मूल्यों के साथ प्रस्तुत करना चुनौतीपूर्ण होता है। शेर है-

राधा काहे मुरली की दीवानी है
मुरलीधर को आज तलक हैरानी है
यहाँ प्रेम जैसा शब्द कहीं नहीं लेकिन उसका वैभवशाली रूप पसे-मंजर है। एक शब्द गौरतलब है- ‘मुरलीधर!’
शेर में कुछ शब्द किसी चमकते हुए नग की तरह होते हैं। मुरलीधर ऐसा ही शब्द है। मुरलीधर में लयातम्कता तो है ही, शेर में आकर यह शब्द (या मिथक) नया रूप-रंग अख्तियार करता है।

के० पी० अनमोल एक बच्ची को किरदार बनाते हैं तो संवेदना वहाँ गूंजती हुई महसूस होती है, वो मिथक को केंद्र में रखकर शेर कहते हैं तो भारतीय संस्कृति का शिद्दत से एहसास होता है, वो बदहवास समाज पर तब्सरा करते हैं तो उस समाज का अदृश्य तनाव महसूस होता है। अनमोल जब सम्बन्धों को केन्द्र में रखकर शेर कहते हैं तो नए समाज के भीतर का विखंडन और बिखराव शिद्दत से महसूस होता है-
खेल, मस्ती, दोस्त, बचपन अब भी हैं दिल में बसे
दिन मगर चलते बने हैं इक कमी को छोड़कर

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बाप नहीं रो पाता बेटों के आगे
बूढी आँखों में भी कितना पानी है

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जब-जब संवादों में खाई होती है
सम्बन्धों में हाथा-पाई होती है

तीनों अशआर सामाजिक मूल्यों के पतन को बड़ी मार्मिकता से व्यक्त करते हैं।

शायरी की बुनियादी शर्त अगर शायरी है तो अनमोल उसकी भरपूर पैरवी करते हैं। अनमोल ऐसे युवा ग़ज़ल लेखक हैं, जो मिसरों की दुनिया में बेचैन कर देने वाली रचनात्मकता को व्यक्त करते हैं और इस सादगी से करते हैं कि वही सादगी हलाक करती नज़र आती है, शेर है-
तुम्हें जिस भरोसे का सर काटना था
हमें उसके दम पे सफ़र काटना था

यहाँ विरोधाभास है। यही विरोधाभास शक्ति की तरह है। वरना विरोधाभास ही 'क्लीशें' हो जाता है और शेर ख़ारिज! लेकिन यह विरोधाभास दो विचारों का विरोधाभास है। हम यह भी कह सकते हैं कि यह इंसानी क़द्रों का शेर है। दो मिसरों (एक शेर) के बीच एक अदृश्य 'डिवाइडर' है। यह डिवाइडर तुम और हम की शैली के बीच है। 'तुम्हें जिस भरोसे का सर काटना था' यह मुहावरा है और शेर की रीढ़ है। विध्वंस तुम्हारा शेवा हो तो हो हमें उसी भरोसे, उस ही जीवन मूल्यों (जो मानवतावादी सोच की हिफ़ाज़त करते हों) के सानिध्य में ज़िन्दगी बसर करनी है। एक सशक्त शेर की कई तहें होती हैं, कई पाठ होते हैं। इस शेर की भी कई तरीक़े से तशरीह की जा सकती है। यह शेर का गुण है।

हिन्दुस्तानी तहज़ीब इतनी विराट और विशाल है कि उसे हज़ारों रंग-रूप में देखा, परखा और महसूस किया जा सकता है। यह हिन्दुस्तानी तहज़ीब है कि यहाँ पतला-सा कच्चा धागा भी विश्वास की मजबूत मान्यता में बदल जाता है। अनमोल इसी हिंदुस्तानियत के जज़्बे पर शेर कहते हैं तो पीपल और उस पर लिपटे धागे किसी प्रतीक की तरह सामने आ खड़े होते हैं। शेर है-
हैरत है पीपल की शाखों से कैसे अरमां
पतले-पतले धागों में आकर बंध जाते हैं

देखना यह भी होता है कि एक युवा अथवा वरिष्ठ ग़ज़लकार अपनी रचनात्मक शक्ति का कितना उपयोग करता है और कितना विस्तार दे पाता है। एक संजीदा ग़ज़लकार के लिए अपनी बनी-बनायी रचनात्मक दुनिया को तोड़ना भी ज़रूरी होता है ताकि वो नई तख्लीक का सृजन कर सके और दोहराव से भी बच सके।

अनमोल की ये कोशिशें प्रभावित करती हैं। उनकी शेरगोई में जो वैचारिक विस्तार है उसी सिल्सिले में ये अशआर-

इक माँ के दिल पे सोचिये क्या बीतती होगी
दो भाईयों के बीच की दीवार देखकर

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बढाओ हौसला इंसानियत का
किसी कोने में वो टूटा पड़ा है

*********************

शाम गुज़री झील की गोदी में सूरज डालकर
यूँ लगा दादी चली है पोटली को छोड़कर

पहले शेर में माँ की व्यथा-कथा है। तो दूसरे में इंसानियत के टूटने की मध्यम-सी आवाज़ें हैं। यहाँ अनमोल समाज से मुख़ातिब हो रहे हैं। इस शेर में ख़लिश है, बेचैनी है और वेदना भी है। इंसानियत यानि मनुष्यता को बचाए रखने का जज़्बा शेर का यह उज्ज्वल पक्ष है। तीसरा शेर! इमेजिस की रचना और इसी में रूपक का होना! शेर बिम्बात्मक है और दिखाई देने लगता है।

प्राय: हर सशक्त ग़ज़लकार के पास दो तत्व लाज़मी होते हैं- स्मृतियाँ और तलाश! यहाँ माँ की स्मृतियाँ हैं और वो प्रबल भावना के साथ व्यक्त होती हैं।
शेर है-
माँ की बातें गाँठ बांधकर लौटा है
कुछ सौगातें गाँठ बांधकर लौटा है

अभी-अभी माजी से यादों की अनमोल
कुछ बारातें गाँठ बांधकर लौटा है

छोटी बहर की इस ग़ज़ल में आधे से ज़्यादा हिस्सा रदीफ़ के हवाले है। इसके बावजूद शेर में आकर्षण है तो इसलिए कि इसमें स्मृतियों की गूंज है। रदीफ़ के गुम्बद में स्मृतियों की गूंज! यही गूंज सम्मोहन पैदा करती है।

अनमोल की एक ग़ज़ल में कुछ नया-सा प्रयोग है। यहाँ 'हद' रदीफ़ है। अमूमन शेर काफ़िये के गिर्द घूमते हैं। यहाँ रदीफ़ की अहमियत है। बात हद की है लेकिन जब बात किसी दूसरे के अवसाद को समझने की हो तो बात हद की होती है और बे-हद की भी। शेर है-
किसी के हाथ फैले देखकर दिल बैठ जाता है
कभी देखी है मेरी जेब ने भी मुफ़लिसी की हद

के० पी० अनमोल युवा ग़ज़लकार हैं। नए वक्तों के तज़ुर्बे उनकी ग़ज़लों में है। नए समाज में जो जीवन मूल्यों और सामाजिक सरोकारों का क्षरण हुआ है, उसकी चिंता यहाँ है और वो साफ़-शफ्फाक है। वो सूझ-बुझ के साथ शेर कहते हैं। कुछ इस सलीक़े से कि बाज़ार की जगमग संस्कृति की पृष्ठभूमि में जो ज़ुल्मत है तथा अभावों का बीहड़ है, ग़ज़ल दृष्टि वहाँ तक पहुँचे। वो इस कोशिश में निरन्तर सफल भी होते हैं (नहीं भी होते) लेकिन जो मानीखेज है वो है अपने समय की विडम्बनाओं का संज्ञान लेना। वो कहते हैं- 'लगा ठोकर ज़माने को कलन्दर हो गया हूँ मैं!' यह आत्मविश्वास से भरी जुर्रत उनकी रचनात्मक शक्ति है। वो फेसबुक पर सक्रीय रहते हैं और तपाक से कहते हैं-

मेरी उम्मीद बंजर हौसलों पर
नए सपने उगाने जा रही है।

यह ग़ज़लगोई नए सपने उगाने वाले के० पी० अनमोल का आश्वस्तकारी सफ़र है।



(हिंदी ग़ज़ल की नयी चेतना, ज्ञानप्रकाश विवेक, प्रकाशन संस्थान नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण 2018, पृष्ठ 220-224)

Monday 19 December 2022

समकालीन ग़ज़लकारों की बेहतरीन ग़ज़लें


संकलन- समकालीन ग़ज़लकारों की बेहतरीन ग़ज़लेंसंपादक- के० पी० अनमोल
प्रकाशन- किताबगंज प्रकाशन, गंगापुरसिटी
संस्करण- प्रथम, अक्टूबर 2018
मूल्य- 150 रुपये




इस पुस्तक में मेरे समकालीन ग़ज़लकारों की वे बेहतरीन 85 ग़ज़लें हैं, जो पिछले सालों में इधर-उधर पढ़ने में आयीं और मन के किसी कोने को छूकर बैठ गयीं। हिन्दुस्तानी ज़ुबान की ये सभी ग़ज़लें अलग-अलग ग़ज़लकारों की रचनाएँ हैं, जो देश के अलग-अलग कोनों में रहते हुए ग़ज़ल जैसी समृद्ध विधा को और समृद्ध करने में संलग्न हैं। किताबगंज प्रकाशन से आयी यह पुस्तक जोधपुर के दो बेह्तरीन दोस्त और उम्दा ग़ज़लकार ख़ुर्शीद खैराड़ी साहब और फ़ानी जोधपुरी भाई को समर्पित है।

- के० पी० अनमोल

अमेज़न से इस लिंक के ज़रिए यह पुस्तक मँगवाई जा सकती है-
https://www.amazon.in/-/hi/Editor-K-P-ANMOL/dp/B07K69YWRY/ref=sr_1_3?qid=1671474356&refinements=p_27%3AK.+P.+ANMOL&s=books&sr=1-3

लोग जिसको ज़हीर कहते हैं



संकलन- लोग जिसको ज़हीर कहते हैं
चयन एवं भूमिका- के० पी० अनमोल
संस्करण- प्रथम, 2022
मूल्य- 160 रुपये






लोग जिसको ज़हीर कहते हैं वरिष्ठ हिन्दी ग़ज़लकार ज़हीर कुरेशी की शुरूआती उर्दू ग़ज़लों का संचयन है। इसमें इनकी वर्ष 1968 से 1973 तक की ग़ज़लें सम्मिलित हैं। ये लगभग समस्त ग़ज़लें उस काल में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। इस पुस्तक में ज़हीर सर की ग़ज़लों को खण्ड- अ एवं खण्ड- ब दो भागों में रखा गया है। खण्ड- अ में 70 ग़ज़लें तथा खण्ड- ब में 20 प्रेमपरक ग़ज़लें हैं। ज़हीर सर के समस्त ग़ज़ल लेखन को समझने के लिए उनकी शुरूआती समय की उर्दू ग़ज़लों से होकर गुज़रना बहुत ज़रूरी है।

- के० पी० अनमोल

श्वेतवर्णा प्रकाशन की वेबसाइट से इस लिंक के ज़रिए यह पुस्तक मँगवाई जा सकती है-
https://shwetwarna.com/shop/books/log-jisko-zaheer-kahte-hain-k-p-anmol/

Saturday 17 December 2022

101 महिला ग़ज़लकार


 

101 महिला ग़ज़लकार
संपादक- के० पी० अनमोल
प्रकाशक- किताबगंज प्रकाशन, गंगापुरसिटी (राजस्थान)
ISBN: 978-93-88517-12-6
संस्करण- प्रथम, दिसम्बर 2018
मूल्य- 350 रुपये


यह संकलन किसी प्रकार का दावा नहीं करता। महिला ग़ज़ल पर इससे पहले भी काम हुआ है और हो रहा है। हमारा उद्देश्य सिर्फ इस विषय पर ध्यान दिलाना रहा है तथा इस तरह के महत्त्वपूर्ण कार्य में अपनी तरफ से सहयोग करना भर रहा है, बस। ऐसे समय में जहाँ सदियों से चली आ रही रूढियों को समाज धीरे-धीरे तोड़ रहा है, थोड़ा खुलापन मिल रहा है और अपनी बात रखने के लिए प्लेटफॉर्म्स बहुत आसानी से उपलब्ध हैं, तब महिला दृष्टिकोण से देखे गये परिदृश्य पर अभिव्यक्ति आनी ही चाहिए। तभी इस माहौल की सार्थकता सिद्ध होगी।

- के० पी० अनमोल (संपादकीय से)



किताबगंज प्रकाशन से प्रकाशित संपादक के० पी० अनमोल की 'एक सौ एक महिला ग़ज़लकार' ग़ज़लों की एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। इतनी बड़ी संख्या में एक स्थान पर इन महिला ग़ज़लकारों का आना अपने आप में महत्वपूर्ण उपलब्धि है। जब हम पूरे हिंदी साहित्य के इतिहास लेखकों पर दृष्टि डालते हैं तो महिला रचनाकारों की परंपरा उपेक्षित दिखाई देती है फिर ग़ज़ल विधा पर पुस्तक लिखना, ग़ज़ल विधा पर महिला रचनाकारों को इतनी बड़ी संख्या में एक साथ लेकर आना एक साहस ही है। ऐसे समय में जब महिला लेखन पर अब लोगों का ध्यान केंद्रित हो आया है तो ग़ज़ल विधा पर महिला लेखन की चर्चा अपने आप में सराहनीय कार्य है। पुस्तक में सम्मिलित ग़ज़लकारों के क्षेत्र पर जब मेरा ध्यान गया तो मैंने गौर किया कि इसकी पहुँच ज़्यादा से ज़्यादा प्रदेशों तक गयी है। कुछ प्रदेश छूट गए हैं पर इतना व्यापक फ़लक़ प्राप्त करना भी आसान नहीं रहा होगा। उत्तरप्रदेश, पंजाब, बिहार, नई दिल्ली, उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, बेंगलुरु, महाराष्ट्र, हरियाणा, यूनाइटेड किंगडम इत्यादि स्थानों से महिला रचनाकारों की प्रमुख रचनाओं का यह संग्रह बड़ा ही अनुपम व अद्भुत है।

- डॉ० शुभा श्रीवास्तव



एक महिला जब अपनी भावनाओं को शब्द देती है तो वह हृदय के काफ़ी क़रीब होती हैं क्योंकि स्त्री सुलभ संवेदना में मातृत्व और वात्सल्य का व्यापक पुट होता है, जिसमें सारी सृष्टि का सार छुपा है। इसलिए दो मिसरे में मुहब्बत की दास्तान कहते-कहते ग़ज़ल कब ज़िन्दगी की खुरदरी ज़मीन पर उतर गयी, पता ही नहीं चला। पुरुषों के समानांतर जब महिला ग़ज़लकारों की ग़ज़लें भी पढ़ी और गायी जाने लगीं तब अनेक सम्पादकों ने उन पर काम करना शुरू किया। बेहतरीन महिला ग़ज़लकारों से दुनिया को वाक़िफ़ कराने की ज़िम्मेवारी जब मेरे अज़ीज़ मित्र व बहुविध सम्पन्न के० पी० अनमोल ने ली तो मुझे यक़ीन करना पड़ा कि अब वक़्त आ गया है कि स्त्रियाँ भी पढ़ी जाने योग्य हो गयी हैं। वे अपने इल्म और हुनर की पहचान बन गयी हैं।

- डॉ० कविता विकास


यह संकलन अमेज़न पर उपलब्ध है-
https://www.amazon.in/-/hi/Editor-K-P-ANMOL/dp/B09WKK8JBT/ref=sr_1_4?crid=39IXWTBR0V85R&keywords=KP+Anmol&qid=1671301248&s=books&sprefix=kp+anmol%2Cstripbooks%2C1202&sr=1-4

जीवन रंग उषा संग कार्यक्रम में डॉ० उषा श्रीवास्तव द्वारा के० पी० अनमोल से संवाद

 



जीवन रंग उषा संग कार्यक्रम में डॉ० उषा श्रीवास्तव द्वारा के० पी० अनमोल से संवाद
यह साक्षात्कार 21 अप्रैल, 2022 को लाइव प्रसारित हुआ

इसे इस लिंक के माध्यम से यूट्यूब पर देखा-सुना जा सकता है-
https://www.youtube.com/watch?v=Gets23nJQhc&t=8s

Thursday 15 December 2022

के० पी० अनमोल से आशा पांडेय ओझा का संवाद


जन सरोकार मंच, कोटा द्वारा आयोजित के० पी० अनमोल से उनकी साहित्यिक यात्रा पर साहित्यकार आशा पांडेय ओझा (ओसियाँ, उदयपुर) का संवाद।

यह साक्षात्कार शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022 रात्रि- 09:00 बजे से 10:00 बजे तक YouTube पर लाइव प्रसारित हुआ।

इस संवाद को इस लिंक के माध्यम से यूट्यूब पर देखा-सुना जा सकता है-
https://www.youtube.com/watch?v=Qta0VOHFTO4&t=202s

Wednesday 30 November 2022

जी भर बतियाने के बाद


के० पी० अनमोल नई पीढ़ी के एक ऐसे प्रतिभावान और विलक्षण ग़ज़लकार हैं, जिनकी ग़ज़लों में प्रेम है, परिवार है, समाज है, प्रकृति है, जीवन दर्शन है और आध्यात्म भी है। इनकी ग़ज़लों में सरलता है और अपने सीधे-सादे कहन के कारण बड़ी बात कहने का माद्दा भी है।
अपनी इन्हीं ख़ूबियों के कारण बहुत कम समय में ही इन्होंने हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण मक़ाम हासिल किया है।
(संग्रह की भूमिका से)

डॉ० राकेश जोशी
वरिष्ठ हिन्दी ग़ज़लकार


शिल्प की दृष्टि से अनमोल की ग़ज़लें सुगठित, सुघड़ और उरूज पर खरी उतरती हैं। विशेष बात यह है कि उन्होंने अपनी ग़ज़लों में ग़ज़लियत को बरक़रार रखने का ज़रूरी कार्य किया है। चूँकि ग़ज़ल के उरूज और परम्परागत उर्दू शायरी के स्वभाव से अनमोल वाक़िफ़ हैं और ग़ज़ल में उनका कुछ नया करने का आग्रह है इसीलिये उनमें प्रयोगशीलता का जोखिम उठाने का साहस भी ख़ूब है। नए काफ़िये और अनूठे रदीफ़ के प्रयोग उनकी शैल्पिक सिद्धहस्तता को बखूबी उद्घाटित भी करते रहते हैं।

हरेराम समीप
वरिष्ठ हिन्दी ग़ज़लकार एवं आलोचक


ग़ज़ल को अपने खून-पसीने से सींचने वालों में एक युवा नाम के० पी० अनमोल का भी है। के० पी० अनमोल अपनी मेहनत के बल पर हिन्दी ग़ज़ल के जाने-पहचाने व ज़रूरी नाम बन गये हैं। कोई भी रचनाकार अगर कम उम्र में बड़ी सफलता हासिल करता है तो कहीं न कहीं उसमें कुछ विशेष गुण ज़रूर होता है और उसकी यही विशेषता उसे वैशिष्ट्य की श्रेणी में लाकर खड़ा करती है।

डॉ० भावना
हिन्दी ग़ज़लकार एवं समीक्षक
संपादक, आँच वेब पत्रिका



पुस्तक- जी भर बतियाने के बाद
विधा- ग़ज़ल
प्रकाशक- श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली
संस्करण- प्रथम, 2022


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प्रकाशक की वेबसाइट से इस लिंक के ज़रिए मँगवाया जा सकता है

अथवा

8447540078 इस नंबर पर 180 रुपये Paytm या Gpay करके इसी नम्बर पर अपना पोस्टल एड्रेस व्हाट्सएप कर दें।

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कुछ निशान काग़ज़ पर


के. पी. अनमोल एक ऐसे विरल शायर हैं, जिनके पास शेर कहने के लिए समुचित संवेदना और समकालीन जीवन के अनेक ज्वलंत विषय हैं। इनकी ग़ज़लों से गुज़रने के बाद मैं इन्हें मनोवैज्ञानिक पहलुओं का चितेरा शायर कह सकता हूँ। उनके पास अत्यंत सूक्ष्म निरीक्षण दृष्टि है, जिसे अपनी संवेदना में पिरो कर अक्सर वे ऐसी अद्भुत बातें कह जाते हैं, जो देर तक सोचने के लिए मजबूर करती हैं।

ज़हीर क़ुरैशी
वरिष्ठ हिन्दी ग़ज़लकार


के० पी० अनमोल नए समय के यथार्थ में ज़रूरी हस्तक्षेप पैदा करते हैं। यथार्थ की आँखों में आँखें गड़ाकर देखना और उसे ग़ज़ल के ज़रिए व्यक्त करना- जिस तज़ुर्बे और हौसले की माँग करता है, वो उनके पास है। उनके पास आधुनिक बोध है, जिससे वो अनुभूत किये गए समय के विसंगत को नए लबो-लहजे में व्यक्त करते हैं।

ज्ञानप्रकाश विवेक
वरिष्ठ हिन्दी कथाकार, ग़ज़लकार एवं आलोचक


एकदम सबसे सटीक मुहावरे में कहें तो अनमोल ग़ज़लगोई को अपनी अभिव्यक्ति-सम्प्रेषण का माध्यम बनाने वाले उन चन्द विरले शाइरों में से एक हैं, जिनके हाथों में ग़ज़ल मानवता की पुनर्प्रतिष्ठा का माध्यम बन चुकी है।

राकेश कुमार



पुस्तक- कुछ निशान काग़ज़ पर
विधा- ग़ज़ल
प्रकाशन- किताबगंज प्रकाशन, गंगापुरसिटी (राजस्थान)
संस्करण- प्रथम, 2019

अमेज़न पर उपलब्ध है-
https://www.amazon.in/KUCHH-NISHAN-KAGHAZ-PAR-ANMOL/dp/B07QCZ39DM/ref=sr_1_2?qid=1669749230&refinements=p_27%3AK.P.ANMOL&s=books&sr=1-2

इक उम्र मुकम्मल





इक उम्र मुकम्मल अनमोल जी की प्रथम कृति है। एक ऐसी कृति, जिसमें शामिल रचनाओं को उन्होंने जन सामान्य के जीवन से उठाया है। जिनकी भावमयी रचनाएँ अपने आपसे साक्षात्कार तो कराती ही हैं, सामान्य जन के अंतस में भी गहराई तक उतर कर अपना प्रभाव छोड़ने में अत्यन्त समर्थ भी हैं।

इनकी रचनाएँ इनकी गहरी रचनात्मक सूझबूझ का सजीव व सटीक परिचय भी देती हैं। संग्रह की प्रत्येक रचना पठनीय, प्रेरणास्पद और सार्थक है। सहज, सरल, सुबोध स्पष्ट रचनाएँ इस अर्थ प्रधान जीवन में भी व्यक्तित्व की पहचान कराने में सक्षम हैं।

धीरज श्रीवास्तव
संस्थापक-सचिव
साहित्य प्रोत्साहन संस्थान, मनकापुर
ज़िला- गोण्डा (उ०प्र०)



विमोचन का दृश्य






पुस्तक- इक उम्र मुकम्मल
विधा- ग़ज़ल
प्रकाशन- उत्कर्ष प्रकाशन, मेरठ (उ०प्र०)
संस्करण- प्रथम, 2013

यह पुस्तक साहित्य प्रोत्साहन संस्थान, मनकापुर (उ०प्र०) के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित है।